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मई 28, 2011

कदम क्यों रुक

कदम क्यों रुक से से गए
तेरे दामन में आकर
साँसें क्यों थम सी गयी
तुम्हे याद-याद कर


नींद भी क्यों न आये
मुझे आधी रात तलक
उनींदी रातें गुजारूं मै
इंतज़ार में कब तक


मेरी हस्ती मिट जायेगी
तुम्हे याद करते
बेजान सी ज़िन्दगी है मेरी
सपनो में तुम्हे देखते


यूं ही समय कट जायेगी
यादों के पन्ने पलटते
अक्स धुंधली पड़ जायेगी
रिश्तों के सिलवटों को झटकते


बस कहा दो इतना कि
तुम अब भी हो मेरे
मन के दरख्तों में बसे है
मेरे ही चेहरे


तुम्हे छूकर जाती है
जो हवा मुझसे होकर
उन हवाओं में अब भी
तुम ढूँढ़ते हो अक्स मेरा  

मई 24, 2011

मेरे ज़ख्मो को......





मेरे ज़ख्मो को सहलाने की कोशिश न करो 
मेंरे दर्द को बहलाने की साजिश  न करो 
मुझे तुमसे जो दर्दें  सौगात में मिली है 
उन पर मलहम लगाने  की ख्वाहिश न करो 

अश्कों को तो ... पी लिया मैंने 
रिश्ता जो था ... तोड़ लिया मैंने 
अब इन रिश्तो के दरार को 
प्यार  से भरने की कोशिश न करो 

आंसूओं  के समंदर में डूब गया जो दिल 
सपनो के खँडहर में दब गया जो पल 
तन्हाइयों के दरख्तों में जो नींव बनाया मैंने 
उस आशियाने को उजाड़ने.....आया मत करो 




मई 22, 2011

पथिक तू ...


पथिक तू चलते रहना थक मत जाना 
पथिक रे मुखरित होना चुप मत रहना 
पथिक हाय क्यों तू गुमसुम डर मत है हम 
पथिक तू नहीं अकेला तुझे है समर्थन 

बस इतना कर दे आवाज़ उठा ले 
सोते हुए को झट जगा दे 
जो है भ्रष्टाचारी , हत्यारे और आतंकी 
स्थान नहीं ऐसों का हो प्रण ये जन जन की 

पथिक तू  बोल देश के तथाकथित उन भद्र जनों को 
भद्रता है क्या ये अन्याय देखकर चुप बैठे वो 
जमकर हल्ला बोले  विरोध जताए की है उनको परेशानी 
क्यों ये सहते रहते है और अधिक सहने की है ठानी 

भीरुता और कायरता द्योतक है निर्बल देश का 
पर हम है बलशाली त्याग दे मन की सब कायरता 
हमें तो करना है निर्माण एकीकृत भद्र समाज की 
जहां न हो स्थान इन हत्यारों , भ्रष्टों और आतंक की 

मई 16, 2011

मेरे मन मंदिर में.....




मेरे मन मंदिर में  उजाला भर दे कोई
बरसों से रीता मन में प्यार जगा दे कोई

पानी जो ठहरा हुआ है कंकड़ मारे कोई
उन हिलोरों में प्यार जगाये कोई

मेरे इस जीवन में जो एकाकीपन है
इस एका पल को भी छेड़ जाए कोई

निस्संग बिताये लम्हों से ये गुज़ारिश है
लम्हा-लम्हा इस दिल में समाये कोई

इन लम्हों की रह जाए बस केवल यादे
इस तनहा दिल में खुशियाँ भर जाए कोई

मई 10, 2011

नज़्म



(1)
चाँद खिला पर रौशनी नही आयी
रात बीती पर दिन न चढ़ा
अर्श से फर्श तक के सफ़र में
कमबख्त रौशनी तबाह हो गया
(2)
दिल की हालत कुछ यूं बयान हुई
कुछ इधर गिरा कुछ उधर गिरा
राह-ए-उल्फत का ये नजराना है जालिम
न वो तुझे मिला न वो मुझे मिला





मई 04, 2011

चादर पर पड़े .......


चादर पर पड़े सिलवटों की भी जुबां होती है
कभी प्यार तो कभी ग़म की कहानी कहती है


रेत गीली कर जाती है जो तूफ़ानी समंदर
वो समुंदर भी आंसुओं से ही नमकीन होती है


मिटटी की सोंधी खुशबू ने जिन फिज़ाओं को महकाया है
उन फिज़ाओं में ही  पतझड़ की कहानी होती है


पानी के बुलबुले को भूल से मुहब्बत मत समझो
इन बुलबुलों में बेवफाई की दास्ताँ होती है 

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